हांँ मैं लगाती हूंँ लाली होठों पर और बदल देती हूँ कराह को मुस्कान में।

हांँ मैं लगाती हूंँ लाली होठों पर और बदल देती हूँ कराह को मुस्कान में।

निहाल दैनिक समाचार / NDNEWS24X7

रिपोर्ट देवी लाल बैरवा जयपुर

कविता (सोलह श्रृंगार)

हांँ मैं करती हूंँ सोलह श्रृंगार

लगाती हूंँ काजल आंखों में

और बांध देती हूँ मेढ़

उन आँखों से

बहते हुए जल स्त्रोत में।

हांँ मैं लगाती हूंँ लाली होठों पर

और बदल देती हूँ

कराह को मुस्कान में।

एक मोती की माला डालती हूंँ गले में 

और इतराती हूंँ खुद पर

 जब देखती हूँ कि 

गले से निकलती सिसकियों को 

मैंने रंगीन मोतियों से ढक दिया है

नाक में 3 नग वाली नथनी 

और कान में खूबसूरत झुमके डाल कर

पहरेदार बैठा देती हूं और झूम उठती हूं 

कि कोई कर्कश ध्वनि ना पहुंच पाएगी

 अब इन कानों तक।

और लगाती हूँ माथे पर बिंदिया 

तो भर देती हूंँ अपने ललाट को 

स्त्री होने के स्वाभिमान से।

हांँ मैं करती हूँ सोलह श्रृंगार

ख़ुद को‌ ही रिझाने को

बस मुस्कुरा कर जी लेने को 

प्रस्तुतकर्ता

प्रमिला 'किरण'

इटारसी, मध्य प्रदेश